Friday, March 31, 2017

माँ चंडी रहस्य और साधना विधान





सप्तशती महत्व और चंडी रहस्य साधना 

माँ दुर्गा के महात्म्य का ग्रन्थ सप्तशती शाक्त संप्रदाय का सवार्धिक प्रचलित ग्रन्थ है और यह भी निर्विवाद सत्य है कि जितना शाक्त सम्पद्रय में है उतना ही शैव-वैष्णव और अन्य संप्रदाय में भी है सभी संप्रदाय में समान रूप से प्रचलित होने वाला एक मात्र ग्रन्थ सप्तशती है

पाश्चात्य के प्रसिद्द विद्वान और विचारक मि. रोला ने अपने विचारों में सहर्ष स्वीकार किया है कि “सप्तशती के नर्वाण मन्त्र को (ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै) संसार की सर्वश्रेष्ठतम प्रार्थनाओं में परिगणित करता हूँ” |

सौम्या सौम्य तरा शेष सौमेभ्यस्वती सुंदरी ----- “देवि तुम सौम्य और सौम्यतर तो हो ही, परन्तु इतना ही, जितने भी सौम्य पदार्थ है, तुम उन सब में सब की अपेक्षा अधिक सुंदरी हो” |
ऋषि गौतम मार्कण्डेय आठवे मनु की पूर्व कथा के माध्यम से नृपश्रेष्ठ सुरथ एवं वणिक श्रेष्ठ समाधी को पात्र बनाकर मेधा ऋषि के मुख से माँ जगदम्बा के जिन स्वरूपों का वर्णन किया गया है .. वह सप्तसती का मूल आख्यान है |

शक्ति-शक्तिमान दोनों दो नहीं है अपितु एक ही हैं शक्ति सहित पुरुष शक्तिमान कहलाता है जैसे ‘शिव’ में इ शक्ति है---यदि (शिव) में से ‘इ’ हटा दें तो ‘शिव’ शव बन जायेंगे | प्रलय काल में  शिव सृष्टि उदरस्थ कर लेते हैं  व पुनः कालान्तर में सृष्टि निर्माण होता है तब संकल्प शक्ति द्वारा भगवान शिव और शक्ति एक होकर भी अनेक हो जातें .

एकोऽहंबहु श्याम्-----
प्रभु प्रकृति योगमाया का आश्रय लेकर पुनः जगत प्रपंच को चलाते हैं, एस प्रकार प्रवाह से संसार नित्य है सृष्टी प्रलयकाल अनुसार होते हैं अतः काल भी नित्य है | जिस प्रकृति के स्वाभाव के कारण यह संसार चक्र गतिमान है, प्रकृति महामाया ही नित्य है सब कुछ नित्य हि है अनित्य कुछ भी नहीं सम्पूर्ण ब्रहांड में कोई देवी मानते हैं तो कोई देव को | ब्रम्हवेवर्त पुराण के गणेश्खंड में बताया कि सृष्टि के समय एक बड़ी शक्ति पांच नामों से प्रकट हुई – राधा, पद्मा, सावित्री, दुर्गा और सरस्वती |

   जो परब्रह्म श्रीकृष्ण कि प्राणाधिष्ठात्री हैं और उन्हें प्राणों से अधिक प्रिय हैं  वे ही राधा कहलाएगी, जो देवि ऐश्वर्य की आधिष्ठात्री और समस्त मंगलों को करने वाली हैं वे हि परमानन्द स्वरूपिणी हैं देवि लक्ष्मी (पद्मा) नाम से विख्यात है जो विद्या की अधिष्ठात्री और परमेश्वर की दुर्लभ शक्ति हैं और वेदों शास्त्रों पुराणों तथा समस्त योगों की जननी हैं वे सावित्री नाम से प्रसिद्द हैं जो बुद्धि की अधिष्ठात्री देवि हैं सर्वग्यानात्मिका और सर्वशक्ति स्वरूपिणी हैं हैं वे हि माँ दुर्गा हैं जो वाणी की अधिष्ठात्री हैं शास्त्रीय ज्ञान को प्रदान करने वाली और श्री कृष्ण के कंठ से उत्पन्न हुई वे सरस्वती के नाम विख्यात हुई .....

इस प्रकार एक ही देवि या देव अनेकानेक नाम से प्रसिद्द होए हैं यह सृष्टी त्रिगुणात्मिका है | इसमें सत्व, रज-तमो गुण सदा से रहें हैं और रहेंगे सप्तसती में तीन चरित्र के मध्यम से ही तीनों गुणों को दर्शाया गया है मुख्य बात ये है कि कभी सत्व गुण की प्रधानता होती है तो कभी रजोगुण बढ़ जाता है और कभी तमों गुण की वृद्धि होती है इसी प्रकार मनुष्य भी सतोगुणी, रजोगुणी, और तमोगुणी रहें हैं और रहेंगे | जो गुणवान होते हैं उसकी उपास्य देवि भी वैसी ही होती है, भगवान् श्री कृष्ण ने गीता में कहा है कि जो सत्वगुणी प्रकृति के होते हैं वे परमात्मा के साक्षात् स्वरुप देवों की आराधना करतें हैं जो राजसी की प्रकृति के होते हैं यक्षों, राक्षसों की पूजा करते हैं और जो तमोंगुणी पुरुष हैं, वे भूत प्रेत पिशाचादी की पूजा करते हैं |

जिसका जैसा स्वाभाव है जिसकी जैसी प्रकृति है श्रद्धा उसी के अनुसार वह बर्ताव करेगा और वैसी फलश्रुति होगी, जिसके पूर्वजन्म कृत संस्कारानुसार प्रकृति और स्वाभाव होता है और कार्य करता है |
कुछ लोगों का मत है कि, शास्त्रों में मायारूपी भगवती की ही उपासना कही गयी है | यह माया वेदांत सिधान्तानुसार है अतः मुक्ति में उसकी अनुगति नहीं हो सकती अतः भगवती की उपासना अश्रद्धेय है नृसिंहतापिनी में स्पष्ट उल्लेख है नारसिंही माया ही सारे प्रपंच की सृष्टी करने वाली है वही सबकी रक्षा करने वाली और सबका संहार करने वाली है उसी माया शक्ति को जानना चाहिए | जो उसे जानता है  वह मृत्यु को भी जीत लेता है वही अमरत्व को महतीश्री को प्राप्त करता है |
इन सबसे एक ही बात स्पष्ट होती है कि भगवती मायारूपा ही हैं देवि भाग्वातादी के अनुरूप माया स्वयम जड़ा (जड़)है | इसी माया की उपासना का यत्र-तत्र सर्वत्र स्थानों में विधान है | कंतु ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि इसका भाव दूसरा है जो निम्न लिखित प्रमाण से सिद्ध है कि देवि साक्षात् ब्रहमस्वरूपिणी  है

सर्वे     वै   देवा   देविमुपस्थु:   कासि  त्वम् महादेविती |
साब्रवीत्-अहं ब्रह्मस्वरूपिणी | मत्त: प्रकृति पुरुषात्मकं जगत् |

अर्थात देवों ने ने देवि  के निकट पहुँच कर उनसे प्रश्न किया—कि आप कौन हैं, देवि ने कहा मै ब्रहम हूँ, मुझसे ही प्रकृति पुरुषात्मक जगत उत्पन्न होता है |

इसी प्रकार ‘अथ द्रयेषां ब्रह्मरन्ध्रे ब्रह्मरूपिणी भुवानाधीश्वरी तुर्यतीता है’ (भुवनेश्वरी उपनिषद) ‘स्वात्मैव ललित’ (भावानैक उपनिषद)  आदि वैदिक ग्रन्थों में भी तुर्यातीत ब्र्हम्स्वरूपा भगवती ही है, यह स्पष्ट है | त्रिपुरातापनी और सुन्दरितापनी आदि उपनिषद में परोरजसे आदि गायत्री के चतुर्थ चरण में प्रतिपाद ब्रहम के वाचक रूप में ह्रीं बीज को बताया गया है कलि तारा आदि उपनिषदों में भी ब्रह्मरूपिणी भगवती की ही उपासना प्रतिपादित है सूत संहिता में कहा गया है---

  अतः संसार नाशायै साक्षिणीमाल्य रूपिणीम् |
 आराध्येत् परां शक्तिं प्रपन्चोल्लासवर्जितम् |

अर्थात् संसार निवृत्त के लिए प्रपंच-स्फुरण शून्य सर्वसाक्षिणी आत्मारूपिणी परा शक्ति कि ही आराधना चाहिए |
सर्व व्याख्यान एवं प्रमाणों से निर्विकार निरंजन अनंत अच्युत निर्गुण ब्रह्म को ही भगवती का वास्तविक स्वरुप बतलाया गया है देवि भागवत में भी कहा में भी कहा गया है कि निर्गुण-सगुण भगवती के दो रूप है | सगुणों के लिए देवि सगुणा और निर्गुणों के लिए देवि निर्गुणा | यथा--- 

स्नेही स्वजन !

अब आपके लिए माँ आदि शक्ति की वो साधना जो त्रिशक्ति के जाज्वल्य मान स्वरुप की साधना है, उसका व्याखान है इन नव दिवस में पूर्व में दी चंडी साधना के साथ इस साधना को भी कर लिया जाये तो माँ की कृपा प्राप्त होती ही है

यूं तो हमारे ब्लॉग पर कुंजिका स्त्रोत आदि के प्रयोग दिए गए है किन्तु अब इसे संपन्न करें |
सिर्फ तीन दिवसीय साधना है

चूँकि नवरात्री में सभी ज्योत जलाते ही हैं और जो नहीं जलाते वो कम से कम तीन दिवस तक अखंड दीपक प्रज्वलित करे लाल आसन, लाल वस्त्र यदि वाम पंथी है तो दक्षिण मुख और दक्षिण पंथी है तो पश्चिम दिशा का उपयोग करे माँ दुर्गा का चित्र लाल आसन पर स्थापित कर सामने दीपक जलाएं और मन्त्र सिद्धि का संकल्प करें ...

गुरु गणेश और भैरव पूजन सम्पन्न कर कुंजिका स्त्रोत का एक बार पाठ करें एवं पूर्ण नवार्ण मन्त्र की ११ माला संपन्न करें --- माला लाल हकिक या मूंगा या रुद्राक्ष का प्रयोग करें ....

मंत्र---

“ॐ एंग ह्रींग क्लीं चामुंडायै   ॐ ग्लों हुम् क्लीं  जूं  सः  ज्वालय-ज्वालय,
ज्वल-ज्वल प्रज्वल-प्रज्वल एंग ह्रींग क्लीं चामुंडायै विच्चे,
ज्वल हं शं लं क्षं फट् स्वाहा”

“Om eng  hreeng  kleeng  chamndaayai  vichchai  om glom hum  kleen  jum  sah
Jwalay-jwala y  prajwal-prajwal  eng  hreeng  kleeng  chamundayai  vichche
Jwal  ham sam  lam  ksham  fatta  swaha” |

साधना आप संपन्न करें और स्वयम अनुभूत भी आप करें क्योंकि मेरा  तो 20 वर्षों अनुभव है आज मै जो कुछ भी हूँ इसी साधना की वजह से हूँ इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं ---

***निखिल प्रणाम***

***रजनी निखिल***


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