Friday, January 19, 2018

भोपाल सेमीनार 5-6-7फरवरी

 NPRU
निखिल परा विग्यान शोध इकाई भोपाल द्वारा
एक अद्भुत कार्य शाला का आयोजन
आमन्त्रण

जीवन में अनेक समस्याये हैं और इस भागदौड़ की जिंदगी में हमारे पास समय है ही नहीं कि कुछ अलग कर सकें.
अनेक  संस्थाये हैं जो कोइ ध्यान कराते हैं कोइ योग तो कोइ कुछ और.  किन्तु समस्याओ का हल नही है.
इस सेमिनार के माध्यम से आप वो क्रिया प्रक्रिया सीख सकते हैं जिसके माध्यम से आप अपनी प्रतिदिन आने वाली बाधा से स्वयं मुक्त हो सकें ना  किसी तान्त्रिक्, ना ज्योतिष और ना बाबा ना  दरबार  की आवश्यकता होगी |
क्योंकि वो षट्कर्म के कुछ प्रकार आप भी कर पायेंगे 
बिल्कुल वैज्ञानिक  विधि से |
क्योंकि कोइ माने या ना माने सभी कही ना कही टोने टोटको से या नजर बाधा या ग्रह बाधा से पीड़ीत हैं |
विस्वास सभी करते है किन्तु विश्वास ना करने का दिखावा अवस्य करते हैं |
इन्ही सारे सूत्रों को इसलिए सेमिनार के माध्यम से आप सभी को स्वय के लिए तैयार करना ही हमारा उदैश्य है .|
कही ना कही समाज से जो तन्त्र के नाम पर डर और अंधविश्वास है उसे दूर कर हमारे वेद और शास्त्र एवं ऋषि मुनियो की धरोहर के रूप मे जो ग्यान विग्यान है उसे आप तक पूर्ण प्रमाणिकता के साथ पहुंचाना
अब आप स्वय निर्णय लें कि इस अवसर को  पकड़ना  है  या नहीं

वैसे मेरा आप सभी को हार्दिक आमन्त्रण है
रजनी निखिल
भोपाल (म प)
मो. No.8827071034
0755-4901714




Wednesday, January 17, 2018

श्री विद्या




जय गुरुदेव /\
स्नेही स्वजन! 
श्री विद्या का मूल स्वरूप क्या है? 
ये प्रश्न मैने अति अबोधता और अनजाने में गुरुदेव से पूछ लिया |
अब डर भी लग  रहा था कि गुरुदेव कही नाराज ना हों जायें |
किंतु इसके विपरीत उन्होने मुझे मुस्कुरते हुये देखा और कहा, कृति अब तेरा  कमाख्या जाने और दिक्षा का समय हो गया है |
और तब उन्होने मुझे त्रिपुरा रहस्य समझाया,
ये घटना क्रम आज अचानक इसलिए याद आया क्योंकि एक पोस्ट मेरे सामने आयी, "एक अति विद्वान और मेरे ज्योतिष ग्रुप के सम्मानीय सदस्य भाइ श्री कृपाराम उपाध्याय जी" की इस पोस्ट ने मुझे आज दे करीब 22 वर्ष पूर्व के घटना याद दिलायी |
अब हम इस ग्यान चर्चा को क्रमशः करेंगे,क्योंकि ये एक अति विशिष्ट और उच्च साधना के तथ्य हैं इन्हें आप तक पहुंचाना शायद मेरी जिम्मेदारी है इसलिए ......
क्योंकि साधको के जीवन मे प्रत्येक घटना के पीछे कोइ कारण होता ही है... 

श्री सूक्त योग रहस्य ¶
आत्मविद्या ही श्री विद्या है । श्री सूक्त के पीछे पूरा भारत और विदेश पागल हो रखा जो देखो वो इसका प्रयोग कर रहा है
लक्ष्मी और धन दोनी में फर्क है।
यह योग सिद्ध होते हुए भी कितने लोगो फल नहीं देता चाहे 1000 श्री सूक्त करले या लक्ष
बात मूल यही आती है श्री सूक्त विधान सम झजना न ब्रह्मण यह समझा  पाता है नहीं कोई इसका कौल ज्ञान किसीको मिलता है यह एक उच्चतम विद्या है किन्तु आज इसके यंत्र का और मन्त्र का व्यापारी करण हो चूका है 
श्री के मन्त्र करेंगे जरुर पर इसका सम्यक ज्ञान न होने के कारण यह विद्या इतनी फलीभूत नहीं बनती आज लोग बस धन और माया के पीछे भागने के लिए या उन्हें श्री के अभिषेक मन्त्र तंत्र यंत्र से कुछ धन मिल जाये इसके पीछे पद जाते है यह एक निम्न कक्षा की सोच है जिस अवस्था मेंयह योग रचा गया था वो पश्यन्ति और परा के बिच में लिखा हुआ है पर जिसने न यह समजा है नहीं योग्य गुरु की सिख मिलती है तबतक श्री सूक्त श्री यंत्र श्री मन्त्र मिथ्या है 
दूसरी बात कोई भी महा विद्या या सिद्ध प्रयोग की पूरी समज न हो नहीं उनके विधान का रहस्य पता है तब तक वः फल नहीं देता 
जैसे संस्कृत भारत की नहीं अपितु पुरे ब्रह्मांड का नियमन करने वाली लिपि है इससे उपर देवनागरी आती है जहा देवता मनुष्य को बोध देते है 
जैसे वेद बने उपनिषद बने

श्री सार और श्री रहस्य भी कुछ ऐसा जब तक देवता या चित्त में आवृत वृतियो का निरोध होकर चित्त देवतुल्य और उर्ध्वगामी नहीं बनता तबतक यह विद्या बिना बुलेट की गन जैसे ही
जैसे बंदूक तो होगी पर निशाना और बुलेट नहीं तो क्या काम
ऐसे ही बिना सूक्त योग रहस्य समजे यह विधान फलीभूत नहीं होगी

लक्ष्मी और उसका प्रयोजन
हमने लक्ष्मी का मतलब कुछ और समजा है लक्ष्मी यानि धन वैभव दौलत नहीं होता लक्ष्मी वो लक्ष्य को प्राप्त कराने वाली शक्ति को लक्ष्मी कहते

हमारा शरीर लक्ष्मी है यह लक्ष्मी को भगवद कार्य और आत्मज्ञान हेतु मिला हुआ है कहते है की दुर्लभो मानुष देहो देवानामपि दुर्लभं
यह मनुष्य शरीर चाहे तो पशुओ की बहती भोग विलास कर सकता है 
और चाहे तो इसके भीतर आत्मज्ञान का दिया जला कर दुनिया में अज्ञान का अँधेरा मिटा सकता है

दूसरी लक्ष्मी हमारे विचार और संस्कार है जैसे विचार और संस्कार वैसे ही लक्ष्य वैसे ही शक्ति
श्री सूक्तं में कहा हुआ है 
अलक्ष्मी नाशयाम्यहम 
हमे हमारी भीतर की अलक्ष्मी को मारना है है और सदगुणों की पूर्ण लक्ष्मी का प्रगट्य करना होता है
नर तू ऐसी करनी कर के नारायण बन जाये
श्री विद्या श्री कुल वैष्णवी विद्या इनका आधर नारायण है 
और नारायण की पत्नी लक्ष्मी है 
और ऐसे ही काली कुल के अधिपति शिव है

वैसे श्रीसूक्त योग पूरा समजे तो यह एक रूपांतरण क्रिया है जिसमे नर को नारायण स्वरुप बनाया जाता है
बात यहा पर आएगी एक सामान्य नर नारायण कक्षा को कैसे प्राप्त करे इसका विधान ही श्री सूक्त है

जो श्री सूक्त का पाठ करता है या यंत्र कुल चक्र की पूजा करता है किन्तु वो आचरण नहीं करता तब भी यह विधान उस के लिए निष्फल होगा

सूक्त के प्रयोजन में साधक अग्नि देव को आवाहन दे कर उसके अनुक्त शक्ति की प्राप्ति हेतु प्रार्थना करता है

पर क्या साधक वो शक्ति को जानता भी है या नहीं परिचय है भी या नहीं या फिर वो पुस्तक पढ़ कर करता है

बात आती है लक्ष्मी से परिचय होना और उससे परिचय होते ही उनके स्वरुप के अनुकूल होना तब जाके देव की शक्ति तुम्हारे चित्वृत्ति पर आरूढ़ होगी
जैसे श्री कृष्ण को संदीपनी ने नारायण स्वरूप दिया
जैसे वशिष्ठ ने राम को नारायण बनाया
जैसे दत्त ने परशुराम को त्रिपुरा रहस्य समजा कर पूरा ब्रह्मांड भेदन और ब्रह्मास्त्र विद्या सिखाई
तब जाकर पूरी प्रकृति वशीभूत हो गयी यही श्री विद्या विधान है जब अनुरूप केंद्र बिंदु बन गए तो पूरा ब्रह्मांड तुम्हारे सोच पर चल सकता है 
यह आत्मविद्या गहन है इसको सिखने हेतु पूर्ण गुरु का सानिध्य चाहिए जो नाद और बिन्द दोनों ही कला में निपुण हो तब यह विद्या को पूर्णत: समज पाना सम्भव है
यहा सच्चा गुरु यंत्र का प्रयोजन तुम्हारे भीतर की कुंडलिनी में कर देगा और षट्चक्र भेदन कर भीतर के बिंदु को ब्रह्मांड के तत्व से जोड़ देंगे और यही यंत्र का अभिषेक रोज़ यह तत्व से करना है अब श्री यंत्र और उसकी स्थिति समजने से पहले लक्ष्मी को जान ले 
कौनसी लक्ष्मी स्थिर है और कौनसी चंचल
पहले यह सोचो की इस दुनिया में कौनसी चीज़ स्थिर है?
या फिर जन्म से पहले और मृत्यु। पश्चात कौनसा धन तुम्हारे पास रहेगा
उसके लिए कबीर ने खूब कहा है कबीर वो धन संचिये जो आगे को होय
जो मृत्यु के पश्चात काम आये वो धन संचित करो वरना बाकि का धन तो शरीर की मृत्यु होते ही समाप्त हो जायेगा अभी श्रीसूक्त को पूरा समजे तो इसमें यही धन की प्राप्ति हेतु साधक अग्नि से प्रज्वलित करता है ।गुरु कृपा केवलं।
निखिल प्रणाम
एन पी आर यू

Monday, January 15, 2018

षट्कर्म और सेमीनार

(आवाहन) 


गोक्षीधारधवल घनसुन्दर खं,  चिन्तामणि चतुर्वेदमयं जनेशः |
गंधप्रियं चिन्मघं चिर्जिवितं त्यं, नमामि निखिलेश्वर पाद निर्मिलम ||

तांत्रिक षट्कर्म—

तन्यते विस्तार्यते ज्ञानमनेन इति तन्त्रं"

अर्थात जिसके  आधार पर ज्ञान का विस्तार किया जाता है उसे तंत्र कहते हैं, सदगुरुदेव के  अनुसार तंत्र शब्द की उत्पत्ति ‘तनु धातु’ से एवं और्णादिक ‘ष्ट्रन’ प्रत्यय के योग से हुई है . शक्ति और तंत्र को अलग नहीकिया जा सकता ये एक दुसरे के पर्याय हैं क्योंकि इनमें पूर्ण रूप से सम्बन्ध है तंत्र के बिना शक्ति प्राप्त नहीं की जा सकती और वहीँ शक्ति तंत्र आधीन होती है  अतः जिस साधक या शिष्य को शक्तिसंपन्न बनाना है तो उसे तंत्र अपनाना ही होगा |

 यदि किसी साधक ने तंत्र क्षेत्र का नाम सुना हो और उसे षट्कर्म के बारे में न पता हो ऐंसा हो ही नहीं सकता क्योंकि ये तंत्र कि अति आवश्यक विधा है हालाँकि ये भी सत्य है कि इसका उपयोग सामाजिक कार्यों के लिए जैसा होना चाहिए था वैसा हुआ नहीं है क्योंकि इसके कई अर्थों के अनुसार इसे जन सामान्य में मैली विद्या जैसी मानी जाती है , किन्तु वास्तविकता में ऐंसा है नहीं ये एक अति उच्च और विशिष्ट विद्या का स्वरुप है जिसके अनेकों आयाम हैं | पर अभी तो आवश्यक ये है कि हम यह जान सके कि तांत्रिक षट्कर्म है क्या ?

वशीकरण या आकर्षण, शांति, स्तम्भन, विद्वेषण, उच्चाटन, मारण ये छः प्रकार के कर्म या साधनाओं के वर्गीकृत के सम्मिलित स्वरुप को षट्कर्म कहते हैं और इनका सामान्य सा अर्थ है
१-      वशीकरण- अर्थात किसी को भी अपनी आज्ञानुसार चलाना यानि वह आपकी प्रत्येक बात को माने | आपका रंग रूप कैसे भी हो किन्तु आपका आकर्षण इतना हो कि प्रत्येक व्यक्ति आपकी बात सुने आप जहाँ भी जाएँ सबकी आँखे आप पर हों और आप आकर्षण का केंद्र हों |

२-      शांति कर्म का साधारण सा अर्थ है, साधक पर किसी भी बुरे गृह या ग्रहों की अशुभ अशुभता का या जो देवि देवता जिनमें कुल देवी देवता से लेकर अनेकों ग्राम देवता और अन्य भी हो सकते हों उनके क्रोध और दुस्प्रभाव का प्रभाव का शमन हों सके ये क्रम शांति कर्म के अंदर आते हैं

३-      विद्वेषण का सामान्य अर्थ कि किन्ही दो व्यक्तियों के बीच मतभेद पैदा करना या झगडा करवाना |
४-      उच्चाटन, मतलब जी या मन का उचाट होना अर्थात जिस व्यक्ति पर ये प्रयोग पर किया जाता है उसे उसके इक्छित विषय से उसके मन को या जी को हटा देना |

५-      स्तम्भन का साधारण अर्थ है कि किसी कि गति कैसी भी रोक देना |

६-      मारण – अर्थात प्रयोग द्वारा किसी को भी मार देना मृत्यु देना |

किसी भी व्यक्ति को या साधक को तब तक तांत्रिक कहलाने का अधिकार नहीं है जब तक वो इन कर्मों की सिद्धि को पूर्णता के साथ सिद्ध न कर ले इस विधा को किसी अन्य दृष्टिकोण से न देखकर केवल इतना समझ लें कि मारण मोहन जो जाने वो सारा ब्रह्मांड पछाड़े |

सदगुरुदेव ने अपने पत्रका के प्रकाशन के प्रारम्भ काल में ही इस विषय की उपयोगिता और साधकों को इससे सम्बंधित भ्रांतियों को दूर कर इसका पूर्ण ज्ञान दिया था |

हमारा प्रयास भी इस पुस्तक के माध्यम से इन षट्कर्म को न केवल साहित्य के रूप में आप तक पहुचाना है अपितु प्रायोगिक रूप में आपको सिखाना भी है |

बशर्ते आप तैयार हों | इसके लिए  हम एक सेमीनार यानी प्रायोगिक कार्यशाला आयोजित कर रहें हैं जो भी साधक साधिका इसमें भाग लेना चाहते है वे समय रहते अपने नामांकन करवा लें इस हेतु आप हमारी मेल id पर अपना नाम और फोन न०  भेंजे जिससे बाकी कि जानकारी आपको दी जा सके |

हमारी इस कार्यशाला में संपन्न होने वाली प्रमुख साधनाएं व कार्यक्रम ---

षट्कर्म के प्रथम तीन कर्म वशीकरण, शांति और स्तम्भन को पूर्ण प्रायोगिक विधान से करवाना ,
षट्कर्म में षट्चक्र का विशेस महत्व है अतः मूलाधार चक्र को पूर्ण रूप से जाग्रत करने का विधान |

रस विज्ञानं अर्थात पारद विज्ञानं का प्राम्भिक ज्ञान

तीन दिन की कार्यशाला में पूर्ण साधनात्मक क्रियाएं

 स्नेही स्वजन !


5-6-7 फरवरी २०१८  आप सभी आमंत्रित हैं इन उच्च और विशिष्ट साधनाओं के प्रायोगिक ज्ञानार्जन हेतु कार्यशाला में और साहित्यिक ज्ञानार्जन हेतु हमारी तंत्र कौमुदी की “षट्कर्म और रस विज्ञानं के गुप्त रहस्य खण्ड” पुस्तक का नवीन संस्करण के साथ स्वागत है ---/\ 


***रजनी निखिल***
**एन पी आर यु ** 


Wednesday, January 3, 2018

MERA SAFAR



जय सदगुरुदेव

स्नेहिल स्वजन !

वो समय आ गया है जब कि मै आरिफ जी  के पदचिन्हों पर चलते हुए आपको तंत्र मंत्र साधना और ज्ञान के अनेक आयाम जहा से हम लोग गुजरकर यहाँ तक पहुंचे और इस राह में अनेक साधक अनेक गुरु भाई बहिन अनेक सन्यासी साधकों ने हमारा मार्गदर्शन किया उन सबके बारे में जानना आपका अधिकार है क्योंकि ये एक अकाट्य सत्य है कि कोई भी व्यक्ति सरलता से साधन के अयामो को बल्कि उच्च आयामों को छू भी नहीं सकता

हम बहुत भाग्यशाली हैं कि सदगुरुदेव परमहंस स्वामी निखलेश्वरानंद जी (डॉ नारायण दत्त श्री माली जी) का वरद हस्त हमारे शीश पर्थ और उन्होंने प्रत्येक पल हमारी ऊँगली थाम कर हमें इस मार्ग पर चलाया |

 अपने जीवन के उन पड़ावों को (जहाँ मैंने साधना सिद्धि प्राप्त की और जैसे मुझे गुरुदेव का मार्गदर्शन मिला साथ हि उनकी आदेश से जिन लोगों ने मुझे सिखाया) मै एक सीरिज के माध्यम से शेअर करती जाउंगी ताकि आप भी उस ज्ञान और उन व्यक्तित्व से परिचित हो सकें,
मैंने तंत्र को हि जिया और अभी भी तंत्र को ही जानने और समझने की कोशिश करती रहती हूँ इससे पहले कि मई अपनी यात्रा का विवरण आपसे शेअर करूँ आप सभी इसे समझे फिर आगे बढ़ेंगे 


जब सृष्टि की उत्पत्ति हुई तब त्रिदेव ने सृष्टि के सुगम सञ्चालन के लिए प्रत्येक पहेली
के समाधान  की एक गुप्त रचना कर रखी है... या यु कहे की पहेली की रचना ही
इसीलिए हुई की वो गुप्त रचना सृष्टि में प्रथम बार घटित हो कर एक अध्याय रचने
के लिए तैयार हो सके. और इसि गुप्त रचना कों हम प्रश्न का उत्तर या ताले की कुंजी

कह कर भी संबोधित करते है.  और साक्षर पांडित्य शब्दों में इसे तंत्र की संज्ञा दी
गई..
तंत्र, एक ऐसा शास्त्र जो समस्त हिंदू धर्मं का विश्वकोष बन कर स्थापित हुआ. जहा
विभिन्न पद्धतियों से साधना और उपासना का मार्ग प्रशस्त हुआ. तंत्र की उत्पत्ति
सृष्टि के उत्पत्ति से पहले ही हो चुकी थी.. जेसा की उपरोक्त कथं में कहा है की किसी
भि प्रश्न का हल पहले से ही नियोजित है या दूसरे शब्दों में हल के प्रकटीकरण में ही
प्रश्न की उत्पत्ति हुई.
तंत्र शास्त्र मुख्य रूप से आगम और निगम इन दो श्रेणियों में विभाजित है... इन के
आलावा यामल, डामर, उड्डिश आदि नामो के वर्ग में भि विभाजित हुए और साथ
ही साथ उपतंत्र भि स्थापित हुए. इस उपलक्ष में प्राचीन काल में ही ऋषि मुनि
महान तंत्राचार्यो ने हस्त लिखित मनु स्मृतियों में पूर्व से ही काली काल के लिए
भाविश्यित कर दिया था की “काली काल में तंत्र की आगम निगमता के वैतिरिक्त
अन्य कोई शास्त्र पर्याय स्वरूप शेष नहीं रहेगा जीवन की विकटता से निपटने के
लिए”
काली काल अर्थात कलियुग में जीवित रहने के लिए तंत्र ही एकमेव श्रेष्ठ मार्ग
स्थापित होगा और इसी कारण विलुप्त होती इस विधा के जैसे अब तक त्रिदेवो ने
विशेष नायक स्वरूप अवतरित होकर इसकी काट संसार कों दी...और जब फिर
स्थिति के विचल होते ही इसी के पुनः संस्मरण और स्थापन के लिए परम
वन्दनीय श्री निखिलेश्वरानंद जी  का अवतरण पूजनीयडॉ. नारायण दत्त श्रीमाली
जी के गृहस्थ रूप में हुआ और उन्होंने पुनः इस विधा कों एक नया श्वास प्रदान
किया है...उनकी एक सीख हमेशा याद रहती है की सब कहे पोथन की देखि पर मै
कहू आखन की देखि... वे मंत्र तंत्र यन्त्र या इतर विज्ञान के ना केवल रक्षक के रूप में
खड़े हुए अपितु वे इस काली काल के मंत्र तंत्र यन्त्र के सृष्टा भि हुए... उनके
अनगिनत पक्ष है जिस पर यहाँ लिखा जा सकता बस जगह कम पड़ती जायेगी
तंत्र अनुगमनता में प्राचीन काल से विभिन्न संप्रदायों की स्थापना की.. हालाँकि
बाह्य परिप्रेक्ष्यता से देखे तो सभी सम्प्रदाय शिव शक्ति के ही उपासक है.. इसलिए
जितने शास्त्र लिखे गए वे शाक्तागम और शैवागम पर ही निर्धारित है. केवल पद्धति
अलग होती है परन्तु उपासना फल एक सा ही होता है... अर्थात गंतव्य सदा से एक
ही रहा है उस ब्रम्ह का साक्षात्कार परन्तु मार्ग विभिन्न रहे है. मनुष्य सदा से
सर्जनशील रहा है और वही रचनात्मकता उसे एक से दो, दो से तीन संप्रदायों कों

रचित करने के लिए प्रेरित करती रही.. वह सदा से अद्वितीयता कों प्राप्त करना
चाहता रहा है और यही उसकी प्रेरक शक्ति भि रही है. तो यहाँ में संप्रदायों के
यथासम्भव प्राप्त विभिन्न नाम कुछ इस प्रकार से है –
१.   कौल मार्ग जिसे कुल मार्ग कौल मत भि कहा जाता है.
२.   पाशुपत मार्ग
३.   लाकुल मार्ग
४.   कालानल मार्ग
५.   कालमुख मार्ग
६.   भैरव मत
७.   वाम मत
८.   कापालिक मत
९.   सोम मत
१०.                    महाव्रत मत
११.                    जंगम मत
१२.                    कारुणिक या कारुंक  मार्ग
१३.                    सिद्धांत मार्ग जिसे रौद्र मार्ग भी कहा गया है
१४.                    सिद्धांत मत शैव मार्ग
१५.                    रासेश्वर मत
१६.                    नंदिकेश्वर मत
१७.                    भट्ट मार्ग
उपरोक्त मार्गो में से कुछ मार्ग बहुत ही प्रचालित रहे.. मतलब की उस मार्ग कों
अनुगमन करने वाले साधक की तादाद ज्यादा रही... परन्तु काल के फेर में कभी
कोई मार्ग बहिष्कृत होता तो कभी कोई.. इसी के चलते मान्यता प्राप्ति हेतु बहुत से
मतों का मिश्रण होकर नए मतों का अवतरण भि होता गया.. कुछ मार्ग बहुत ही
गुप्त रूप से अवलंबित होने लगे थे. जो केवल गुरुमुखी परम्परा में ही चलते है अब...
प्रश्न ये उद्भवित होता है की इतने विविध मत मार्ग क्यों?  जब एक ही मार्ग से
अभीष्ट की प्राप्ति हो सकती है. लेकिन एक पक्ष विचारणीय बिंदु यही रहा है की
उपासना मार्ग में सबसे श्रेष्ठ मार्ग तभी प्रमाणित हो सकता है जब आपने सभी मार्गो
कों अवलंबित कर प्रत्येक साधना यात्रा कों अनुभूत किया हो.. और उसी के आधार

पर इसका निष्कर्ष संभव है. परन्तु फिर प्रत्येक का निष्कर्ष भिन्न हो सकता है.
क्युकी व्यक्ति भिन्न तो मत भी भिन्न...
अब दूसरा पक्ष कुछ इस प्रकार से हो सकता है की प्राचीन तंत्राचार्यो ने जब
संप्रदायों की पद्धतियों कों मिश्रित किया तो उसके परिणाम तीव्र एवं अत्यंत
प्राभावी मिले और समय अनुरूप भि...
जैसे किसी सम्प्रदाय के गुरु के पास अगर दूसरे सम्प्रदाय के शिष्य ने तंत्र ज्ञान की
याचना की. सुपात्र  शिष्य कों गुरु स्वयं ढूढते है तो मिलने पर नाकारा कैसे जा
सकता है.. परीक्षित होने पर गुरु उसे शक्तिपात कर उस सम्प्रदाय की गुरु परंपरा
कों निर्वाहित करते है. और उसी ज्ञान के आधार पर शिष्य एक नविन अध्याय रचते
है.. और दो संप्रदायों का उनके सिद्धांतों का कुछ इसी तारह मेल एक नए सम्प्रदाय
के अध्याय कों जन्म देता रहा..यहाँ जरुरी नहीं की सभी शिष्यों से यह होता रहता
हज़ारो में से इक्का दुक्का ही इस इतिहास के रचयिता बने...
इसी प्रकार तंत्र की गुह्य से गुह्य जानकारी कों पुनः अगले लेख में प्रस्तुत करने की कोशिश करुँगी ....

निखिल प्रणाम 


***रजनी निखिल ****
   ****NPRU ****